Monday, May 5, 2014

॥ तू "बेनज़ीर" था, तू "बाज-ए-तदबीर" था ॥

तू "बेनज़ीर" था इस समाज की तक़दीर था,      
तू हर एक पंचायत की "बाज-ए-तदबीर" था ॥     

वो आवाज का जादू था के गर्मी थी लहजे की,
वो अंदाज निराला था के चमक थी चहरे की,
मैं किसको करूँ याद किसको भुलाऊँ,
तुम्हें सोचता हु जितना उतना तुम्हें चाहूँ ॥

हर बात तुम्हारी यू औरों से थी जुदा
जैसे फ़लक पे चाँद सितारो से है जुदा,
है दुनिया मे आज भी दिलदार बहुत अच्छे,
आगे तुम्हारे सभी लगते है बच्चे ॥

आज सिर्फ जिस्म के चर्चे है जान नहीं है,
है बहुत कुछ मगर “मुकदम बालूराम” नहीं है ॥

तेरी हुंकार थी हर कदम,
तेरी पुकार थी हर कदम,
तुम थे तो सब समस्याओं का निवारण था,
तुमसे ही सही ज़िंदगी जीने का आचरण था
दूसरों के लिए जीना तुमने सिखाया था,
सबको समेट के सिने से लगाए रहता हूँ,
अब भी तेरे इंतज़ार मे पलके बिछाये रहता हूँ ॥

तुम वेदना संवेना, तुम ज़िंदगी की चेतना,
तुम मान हो, सम्मान हो,
तुम मेरा ज्ञान हो अभिमान हो,
बस यही है मेरी ज़िंदगी की व्यथा,
तुम “महेश” का आत्म सम्मान रहोगे सदा ॥

(बे नज़ीर= अनुपम, अनूठा, जिसके कोई बराबर का न हो)
(बाज़=करने वाला, कर्ता, प्रतिनिधी तदबीर=काम करने या निकालने का कोई ढंग)



No comments:

Post a Comment