Wednesday, May 7, 2014

॥ गर्दिश के हजारो रंग देखे है मैंने ॥

गर्दिश के ये पल बीत जाने दे,
मुझे थोड़ा इस वक्त को समझाने दे,
सोदा किया है तक़दीर से मैंने,
जरा थोड़ा तक़दीर से बैठ के बतलाने दे ॥

गर्दिश के हजारो रंग देखे है मैंने
यूही शायद बहारों का रंग भूल गया ॥

जब भी देखे खंडर ही देखे है मैंने
इसीलिए बुलंद मीनारों का रंग भूल गया ॥

हवा उड़ा के ले गयी बहुत दूर तलक,
तमाम सफर के बाद कहाँ जाना है भूल गया ॥

खूब रोशनी थी शाकी तेरे मैखाने मे,
फिर भी बनते हुए जाम उठाना भूल गया ॥

वो सितम की राह बनाते चले हर कदम,
मैं उन राहो मे बहाना बनाना भूल गया ॥

लोग अक्सर अपने दामन पे दाग छुपा लेते है,
मैं अपने दामन के दाग छुपाना भूल गया ॥

जब भी पाया खुद को छोटा(तुच्छ) पाया मैंने,
इसीलिए महेश अपना कद(वर्चस्व) बढ़ाना भूल गया ॥




॥ अक्सर दोस्त बदल जाते है ॥

जो मिलते है राहों मे नजरे चुरा के निकल जाते है,
ऐसे मौसम भी नहीं बदलता जैसे दोस्त बादल जाते है ॥

गिरिफ़्तार-ए-यारी मे रहता हूँ हरदम,
लोग कहते है ठोकरे खाने पे संभल जाते है ॥

वो जख्म देके भी न हुआ शर्मिंदा,
शायद हम गलत थे के पत्थर भी पिघल जाते है ॥

भरोषा किया जो उनपर खुद से ज्यादा,
वक़्त-ए-गर्दिश मे वो सबसे पहले बदल जाते है ॥

जब भी तन्हा पाते है खुद को दुनिया मे,
मेरे अरमान कागज-कलम पे उतर/निकल जाते है ॥

बस नफरत है महेश” अपनों के दिलों मे भी अब,
रूह पे है ख़राशें बेहद चल इस दुनिया से निकल जाते है ॥ 

॥ जहां देखा बनावटी पैसगार मिला ॥

जहां देखा बनावटी पैसगार मिला,
हर चहरे पे दूसरा चहरा तैयार मिला ॥

जब भी सच को जानना चाहा,
कोई न कोई झूठ का हकदार मिला ॥

जब भी किया विसवाश खुद से ज्यादा उनपर,
पलट के जो देखा तो रूह पे ख़राशो का अंबार मिला ॥

मैं डरता था अपनेपन से शायद,
इसी लिए शौहरतों मे गैरो का व्यापार मिला ॥

वफा, नेकी, सच्चाई, की बात जब भी करना चाहा,
जहालत ये देखो गफलत मे लोगो का दरबार मिला ॥

कितना था दम मेरे चराग मे ये तब ही पता चला,
जब बिना फ़ानूस के मंजिल मे तूफानो का भंडार मिला ॥

खंजर लिए खड़े थे कई मीत हाथो मे,
अब “महेश” क्या चले दुआए क्या सिकवा गिला  ॥ 

Monday, May 5, 2014

॥ तू "बेनज़ीर" था, तू "बाज-ए-तदबीर" था ॥

तू "बेनज़ीर" था इस समाज की तक़दीर था,      
तू हर एक पंचायत की "बाज-ए-तदबीर" था ॥     

वो आवाज का जादू था के गर्मी थी लहजे की,
वो अंदाज निराला था के चमक थी चहरे की,
मैं किसको करूँ याद किसको भुलाऊँ,
तुम्हें सोचता हु जितना उतना तुम्हें चाहूँ ॥

हर बात तुम्हारी यू औरों से थी जुदा
जैसे फ़लक पे चाँद सितारो से है जुदा,
है दुनिया मे आज भी दिलदार बहुत अच्छे,
आगे तुम्हारे सभी लगते है बच्चे ॥

आज सिर्फ जिस्म के चर्चे है जान नहीं है,
है बहुत कुछ मगर “मुकदम बालूराम” नहीं है ॥

तेरी हुंकार थी हर कदम,
तेरी पुकार थी हर कदम,
तुम थे तो सब समस्याओं का निवारण था,
तुमसे ही सही ज़िंदगी जीने का आचरण था
दूसरों के लिए जीना तुमने सिखाया था,
सबको समेट के सिने से लगाए रहता हूँ,
अब भी तेरे इंतज़ार मे पलके बिछाये रहता हूँ ॥

तुम वेदना संवेना, तुम ज़िंदगी की चेतना,
तुम मान हो, सम्मान हो,
तुम मेरा ज्ञान हो अभिमान हो,
बस यही है मेरी ज़िंदगी की व्यथा,
तुम “महेश” का आत्म सम्मान रहोगे सदा ॥

(बे नज़ीर= अनुपम, अनूठा, जिसके कोई बराबर का न हो)
(बाज़=करने वाला, कर्ता, प्रतिनिधी तदबीर=काम करने या निकालने का कोई ढंग)