तेरे हर दर्द को अशआर मे ढाल
लूँगा,
इतना हक़ मुझे दे मैं पहचान लूँगा।
गैर मुमकिन होगा तुझसे नजरे
चुराना,
ऐसे रोते हुए तुझको संभाल लूँगा॥
शाम कुछ देर सुर्ख रहेगी, “कोई नही”
खून अपना कुछ और देर उबाल लूँगा
॥
लोगो को शब के अँधेरे मे मुहब्बत है रहे,
मैं सुबह के उजाले को अपना मान
लूँगा ॥
कट कर रहते-2 हम पर वहसत तारी
हो गई,
अब आपकी तन्हाई को अपने अहसासों
मे ढाल लूँगा ॥
“महेश” के ख्वाब रेत के महलों
की तरह है,
तो क्या हुआ,
अब तूफानों मे भी निशां संभाल
लूँगा ॥
No comments:
Post a Comment