Wednesday, April 27, 2011

||जिन्दगी पहला सफ़र और आखरी हकीकत||

शाम ढलते-ढलते हम सफ़र पे लौट आये,
गली से जो उनकी गुजरे तो थकन में लौट आये||

हस्र हकीमो का भी हुआ बेअसर,
जो पुराने जख्म थे फिर से बदन में लौट आये||

शायद सपनो में बना रहा था आशियाना,
आँख जो खुली तो फिर से वन में लौट आये||

कभी खुद को "मुसव्विर" कभी "शायर" बनाया,
देखा पीछे मुड़ के तो फिर से कागज-कलम पे लौट आये||

हमने ख्याल ए परवाज को समझाया बहुत,
मगर न चाह कर भी फिर से जहान ए तरन्नुम में लौट आये||

चले जो खुशियाँ ढूंढने तो हार कर "महेश"
उदासियों के भवर में फिर से लौट आये||

No comments:

Post a Comment