Thursday, December 16, 2010

"ग़ज़ल ए मुहब्बत"

……लानत है उस मरहूम जवानी पर,
जिसमे न रूह का कुछ पता,
न जिस्म की कोई खबर……

ग़ज़ल ए मुहब्बत पर हमने बनाई मगर,
किस्से जफ़ाओ के नाम मेरी वफाओ के,
सुने जिसने भी इधर-उधर,
चर्चे खयालो के बाते सवालो के,
सुनके सब गए मुकर !!

जिन्दगी मेरी तेरे लिए एक खुली किताब है,
चहरा मेरा तेरे अक्स के लिए एक अजाब है,
हर लम्हा मेरी धड़कन याद करती है तुझे,
तुही मेरी जिन्दगी तुही मेरी हर साँस है,
मैंने बहुत आवाजे दी तुम्हे अपने सिने पे नाम लिख-२ कर,
मगर तुम्हे मुझसे जयादा थी ज़माने वालो की फिकर !!

ग़ज़ल ए मुहब्बत पर हमने बनाई मगर....

पलकों के झरोको में मैने तुम्हे बैठाया,
अपनी उम्मीदों अपने सपनो में मैने तुम्हे सजाया,
हर बार मैं करता रहा खुद से बेवफाई,
मगर मेरी वफ़ा कुछ काम न आई,
सायद ये मुझे मालूम था की होनी ही है रुसवाई,
के बरस रहा है अब ग़मों का कहर,
के मेरा दर्द निकल रहा है आँखों से रह-रह कर !!

ग़ज़ल ए मुहब्बत पर हमने बनाई मगर........

मेरा दुःख कैसा एक मंज़र,
आगे तूफ़ान पीछे सागर,
लहर उठे तो मिल जाए नदिया,
सिमट उठे तो गिर जाए अम्बर,
टूट गए सब सपने गए हम बिखर !!

ग़ज़ल ए मुहब्बत पर हमने बनाई मगर........

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