Monday, December 13, 2010

आखरी रास्ता

यू तो ठहर जाने को मंजिले बहुत थी,
मगर जो रास्ते मंजिलों की तरफ चले वो धुंधला गए,
के वक़्त और बर्बादियों के खंजर मेरे सीने में चुभा गए ॥

के सायद ये नजरो का फेर था की वक़्त दोहरा रहा था कहानिया,
के मैंने जिस तरफ देखा उस तरफ था धुंआ ही धुंआ ॥

के सायद तन्हा रास्तों से डर गया था,
अपने वजूद और जीस्त के लिए कितना मर गया था,
वक़्त की मार लगनी ही थी आखिर,
इसलिए अपनी तन्हाइयों में घिर गया था ॥

जैसे गम मेरे पीछे भाग रहा हो,
के हर घडी मेरे सब्र का अरज माप रहा हो,
मेरी रगों में दोड़ता खून जैसे जम गया हो,
मेरी साँसों का घेरा जैसे थम गया हो ॥

जब आइना रात के सन्नाटे में सच बताने लगा,
 जब मेरी रूह को इबादत दिख:ने लगा,
के जब डर लगने लगा मुझे अपनी परछाइयों से,
तो मेरा वजूद मुझे खुदा के करीब ले जाने लगा ॥

के "महेश" अब जीस्त के सब फलसफे अँधेरे में दम तोड़ गए,
और फिर मुझे जिस्म और जीस्त के बिच अकेला छोड़ गए ॥ 

No comments:

Post a Comment