Monday, December 13, 2010

आखिर कब तक



ये बरबादियो के मंज़र कब तक दोहराए जायेंगे,
नफरत के काले बादल कब तक वतन पर छाएंगे,
कब तक बहेगी लहू की ये नदियाँ,
आखिर कब तक ये नफरत के खेल-खेले जायेंगे,
जाने कब धर्म-कर्म से परे हटकर इंसां पहचाने जायेंगे.....

ये बरबादियो के मंज़र कब तक दोहराए जायेंगे…..

कुछ चहरे इस कदर धुंधला गए,
हर घडी मात्रभूमि को रुला गए,
अपनों से बैर रखकर क्या जीत पायेंगे वो खुशी,
जो ग़मों के ढेर में अपनों को बिठा गए,
इस जमीं की जदों-जहत ने इंसां को निचा बना दिया,
न जाने कब इन दिलों से ये कांटे निकाले जायेंगे,

ये बरबादियो के मंज़र कब तक दोहराए जायेंगे……

तोड़ी थी हमने २०० साल पुरानी जंजीरे,
सायद धुंधला गयी है अब वो तस्वीरे,
कुछ अपने ही इस कदर लूट रहे है वतन को,
सर उठा के देखो क्या बना दिया चमन को,
इस भारत माँ को कब तक रुलाओगे तुम,
न जाने कब होंस में आओगे तुम,
अब डर लग रहा है अपने गुलशन चमन को देखकर,
मैने जब पुछा खुदी में खुद को रोककर,
क्या सहिदों के देखे सपने यूही टूट जायेंगे,
आने वाली नसल को हम क्या वतन दिखायेंगे,

ये बरबादियो के मंज़र कब तक दोहराए जायेंगे……

अ नफरत करने वालो नफरत से वतन नहीं है,
जंगों से बाज आओ शांति और अमन सही है,
इंसानियत को अब इतना भी न गिराओ,
ये वतन है हमारा इस पर रहम खाओ,
सहिदो की कुर्बानियों को यू न सर्मिन्दा करो तुम,
अमन और शांति से ही वतन है इसी की सहारे जियो तुम,
नहीं तो "महेश" फूल खिलने से पहले ही मुरझा जायेंगे,
ग़ुरबत के ये पल फिर न लोट के आयेंगे..............

ये बरबादियो के मंज़र कब तक दोहराए जायेंगे………….

No comments:

Post a Comment