Friday, October 1, 2010

"मंदिर" हो वहा या "मस्जिद" हो वहा,

"मंदिर-मस्जिद" के हवालो से निकले है हवा,
क्यों उसे दुआ मिले मिल रही है बददुआ,
सयंम की कमान मैंने बाधे रखी,
फिर भी दिलो का मैल कम न हुआ,
यू तो जले है पहले भी आशियाँ बहुत,
मगर आज उस मालिक के दर से भी निकला धुआ...
क्या ये जरूरी है के "मंदिर" हो वहा या "मस्जिद" हो वहा,
सायद अब इन्ही से जाना जाता है जहाँ,
कोन समझाए-कोन उन्हे ये बताये,
वो मालिक एक है और एक है ये जहाँ,
के "मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारो" और "चर्च" में बटा हुआ ये जहा,
नदियाँ, झील-समंदर समझ गए सब,
मगर नहीं समझा इंसां...
अगर एक सवाल पूछे हमसे खुदा,
की मैंने पहले "धर्म" "कर्म" बनाये या बनाया तुझे अ इंसां,
की तुझे इस जहाँ में लाने की है ये सजा,
मुझे चार हिस्सों में बाँट दिया,
मैने कभी इस मात्रभूमि को चूमा था,
इसकी रज में लोट कर मैं हुआ बड़ा,
मैने कभी किसी में कोई फर्क नहीं समझा,
फिर भी तुमने इस जहा में मुझको बाट दिया...
लड़ते हो बेगैरत बुजदिलो की तरह,
अरे मैं तो द्वापर सत त्रेता में भी एक ही था,
इस कलयुग में फिर तुमने मुझको बाँट दिया,
संसकिरती को पीछे छोड़ा और सभ्यताओं का नास किया,
अ इंसां क्यों विनास की रहा में तुने कदम रखा,
फिर मैं आऊं ध्वजा दिखाऊ, के उन वीरो को तुमने भुला दिया,
देश प्रेम और भाई चारे का नाम नहीं,
अ मुर्ख तुने "भगवान्" को भी दूजा बना दिया,
के आँखों में बंद कर उजियारे को,
अंधियारे को पल में हटा,
फिर दिल से बोल तू एक था एक है एक ही रहेगा सदा.....

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